Saturday 21 February 2015

जो बोलेगा मारा जाएगा

महाराष्ट्र की प्रगतिशील राज्य की छबि को बार बार कुचलने की कोशिश जारी है।हाल ही में कॉमरेड गोविंद पानसरे पर हुआ जानलेवा हमला और उससे उनकी हुई मौत से फिर एक बार सामाजिक कार्यकर्ताओं पर होनेवाले हमलों का मामला गंभीर हुआ है।महाराष्ट्र को और कितनी मौत चाहिए? यह सवाल आम जनमानस से लेकर सोशल मीडिया में चर्चा में है। 'जो बोलेगा मारा जाएगा' ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में हो रहा है।

महाराष्ट्र के कॉमरेड नेता गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी में पर कोल्हापुर में दिन दहाड़े हमला हुआ।उनका इलाज जारी था। इलाज में सफलता मिलते न देखकर उन्हें मुंबई स्थित कैंडी अस्पताल में दाखिल किया गया जहां पर उनकी मौत की अधिकृत घोषणा शुक्रवार देर रात को की गई। पानसरे की मौत के बाद भी कोई हमलावर पुलिस की गिरफ्त में नही आया है। इसके पहले भी डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या में शामिल किसी भी हत्यारों को पकड़ने में सरकार को सफलता नही मिली है। महाराष्ट्र में आरटीआई कानून लागू होने के बाद से लेकर आज तक कई कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमला हुआ है। इनमें डॉ नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे के नाम भी जुड़ गए है। भले यह दोनों किसी की सूचना नही इकठ्ठा करते थे लेकिन गलत कुरीतियों के खिलाफ जमकर अपनी बात रखकर उसके कार्यान्वय से पीछे भी नही हटते थे। दाभोलकर और पानसरे की हत्या से पहले पुणे के सतीश शेट्टी की हत्या हुई थी।

विगत 11 सालों में कितने लोगों ने  आरटीआई एक्ट का इस्तेमाल और सामाजिक मामलों को उठाने के कारण अपनी जान गंवाई और कितने लोगों पर जानलेवा हमले हुए? इसका जबाब केंद्र के पास है ना राज्य के पास। सामाजिक आंदोलन की अगुवाई करनेवालों पर हमला होना कोई नई बात नही है। 13 जनवरी 2010 को सतीश शेट्टी(38) की तलेगाव दाभाडे में हत्या की गई। अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से जुड़े सतीश ने वहां की जमीन घोटाले की जानकारी निकाली थी। सुबह 7.15 को मॉर्निंग वॉक के दौरान उनकी हत्या हुई। जिसका सुराग आज तक नही लग पाया है। सीबीआई ने अप्रैल 2014 में क्लोजर रिपोर्ट सौपकर मामला बंद किया था जबकि उनके हत्यारों तक सीबीआई पहुंची थी पर राजनीतिक दबाव में मामला आगे बढ़ नही पाया था। हाल ही फिर एक बार सीबीआई ने शेट्टी की फ़ाइल खोल दी है। 20 अप्रैल 2010 को विठ्ठल गीते की मौत हुई। उसपर बीड के वाघबेट गांव में रविवार 18 अप्रैल 2010 की रात जानलेवा हमला हुआ  साईनाथ विद्यालय में चल रही अनियमितता का भांडाफोड़ किया था। 22 दिसंबर 2010 की ही कोल्हापुर में दत्तात्रय पाटील की हत्या हुई थी। पाटील ने नगरसेवकों की हार्स ट्रेडिंग बाबत जनहित याचिका की थी और तथा पावरलूम कारखानों को पोल खोली थी।

महाराष्ट्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमला की घटनाएं चर्चित रही है। प्रसिद्ध अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता श्रीराम लागू पर वर्ष 1991 में सांगली में एक गुट ने लाठियां बरसाई थी। उसी वर्ष डॉ नरेंद्र दाभोलकर पर हथियारों से लैस एक गुट ने हमला किया था लेकिन दाभोलकर ने पुलिस में शिकायत करने से इंकार कर दिया था। 16 मार्च 2010 को रेती माफियाओं ने सामाजिक कार्यकर्ता सुमेरिया अब्दुल अली,नसीर जलाल और एक पत्रकार पर महाड में जानलेवा हमला किया था। महाड पुलिस ने एक विधायक के पुत्र पर मामला भी दर्ज किया। चर्चगेट स्थित ओवल बिल्डिंग में नयना कथपलिया पर 8 जनवरी 2010 को फायरिंग हुई थी। एसआरए योजना, हॉकर्स और अतिक्रमित जमीन कब्जेदारों के खिलाफ नयना आंदोलन करती थी।

एक बार हमले से बचे डॉ नरेंद्र दाभोलकर जो अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिए संघर्षरत थे उनकी 20 अगस्त 2013 को पुणे में हत्या की गई। सुबह मॉर्निंग वॉक के दौरान अज्ञात हमलावारों ने उन्हें गोलियों से भून डाला था जिससे उनकी जगह पर ही मौत हुई थी। आज 18 महीने के बाद भी उनके हत्यारे मिल नही पाए है। महाराष्ट्र के कोल्हापूर में टोल के खिलाफ आंदोलन करनेवाले कॉमरेड गोविंद पानसरे को भी गोलियों से 16 फ़रवरी 2015 को टारगेट किया गया। 5 दिन मौत से संघर्षरत पानसरे ने मुंबई स्थित बीच कैंडी अस्पताल में 20 फरवरी 2015 को दम तोड़ा।

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइटस् इनिशिएटिव(सीएचआरआई) द्वारा प्रस्तुत एक दस्तावेज के अनुसार केंद्र सरकार के पास सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले की आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कार्मिक, लोकशिकायत एवं पेंशन मंत्रालय ने हाल के वर्षो में मामले से यह कहकर पल्ला झाड़ लिया है कि “केंद्र सरकार ऐसे मामलों के आकड़े एकत्र नहीं ” करती। उसका तर्क है कि सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हुआ हमला कानून-व्यवस्था की बहाली का मामला है जो राज्यों के अधीन है।

बीते 11 वर्षो के रुझान इस बात का संकेत करते हैं कि उपेक्षा, अन्याय और भ्रष्टाचार का शिकार हुआ तबका सामाजिक कार्यकर्ताओं की हिम्मत को पस्त करने के लिए उनके ऊपर बड़ी तादाद में हमले कर रहे हैं। मिसाल के लिए बीते 11 वर्षो  में महाराष्ट्र में सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर 55 दफे हमले हुए हैं और इनमें 10 मामलों में कार्यकर्ताओं  की हत्या हुई है। यह तादाद देश के राज-आर्थिक परिवेश को जड़ से आंदोलित कर रही है। अगर सही बात कही जाए तो जल, जंगल और जमीन के अलावा सामाजिक कुरुतियों तथा भ्रष्टाचार को उजागर करने का मामला हो तो सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या या उनके उत्पीड़न की आशंका सबसे ज्यादा है।

महाराष्ट्र में सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमलों की घटनाओं की बढ़ती तादाद के बावजूद सरकार की तरफ से ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई है कि कार्यकर्ता बेख़ौफ़ होकर निडरता से काम कर सके। जब तक शासन और प्रशासन इनकी सामाजिकता और संघर्ष को तवज्जो नही देता है तब तक ऐसे कितने शेट्टी, दाभोलकर और पानसरे बेमौत मारे जाते रहेगे। 'जो बोलेगा मारा जाएगा' का सिलसिला चलता ही रहेगा।


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